श्रीकुशाग्रविरचित-शिवस्तवराजः



शिवस्तवराजः

न त्वं स्तुत्यो विविधवचनैर् नत्वमेको गुणस्ते
तस्मान्नेति श्रुतिमुखरितं चिन्तयेयं कथं त्वाम्।
आशा मोघा भवतु न यतः स्तोतुकामस्य शम्भो
यत् त्वद्रूपं जगति तनुषे धूर्जटे तत्स्तवीमि॥१

हे महादेव, आप अनेक वचनों के द्वारा स्तुति करने के योग्य नहीं हैं क्योंकि “नत्व” ही आपका एक गुण है। अतः “नेति” से मुखरित होने वाले आपकी मैं कल्पना कैसे करूँ? तदपि स्तुति करने के इच्छुकों की याचना व्यर्थ न हो, अतः आप संसार में अपने जिस रूप को प्रकट करते हैं, मैं नित्य ही उसकी स्तुति करता हूँ।

कोऽत्र स्तुत्यः सकलभुवने त्वां विना नीलकण्ठ
स्तोतुं कस्त्वामिह च निपुणो निर्गुणं निर्विकारम्।
त्वत्स्तुत्यर्थं तदपि कविभिर् निर्मिते शब्दजाले
बद्धा लोके भ्रमति मम सा याति तृप्तिं न वाणी॥२

हे नीलकण्ठ, आपके अतिरिक्त संसार में कौन स्तुति करने के योग्य है? और आप निर्गुण और निर्विकार की स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ है? तदपि, कवियों के द्वारा आपकी स्तुति में गूथे गए शब्दजाल में फँसी मेरी वाणी सारे लोक में भ्रमण करती हुई भी तृप्ति नहीं पाती है।

ध्यातव्यस्त्वं गुणरहित हे लिङ्गरूपे स्वभक्तै-
रार्यानार्यैः सकलधरणौ धातुपाषाणमृत्सु।
म्लेच्छाश्चेद्वा यवनकुलजाः शैलखण्डे विधाय
पूर्वं लिङ्गं त्रिपुरहर तेऽपूजयन् ज्ञातमेवम्॥३

हे त्रिपुरहर शिव, आप गुणों से रहित होते हुए भी अपने आर्य और अनार्य भक्तों के द्वारा सारे संसार में धातु, पत्थर और मिट्टी से बने लिंग रूप में स्मरण किए जाते हैं। म्लेच्छ और यवन भी प्राचीन काल में पर्वत के टुकड़ों में लिंग मानकर आपकी पूजा करते थे, ऐसा हमें ज्ञात होता है।

शाक्ताः सौरा गणपतिपरा वैष्णवाः पाशुपाताः
स्मार्ताः श्रौताः श्रमणपथगा आस्तिका नास्तिकाश्च।
ये चान्येऽपि स्वमतनिरताः शैवचिन्ताऽनभिज्ञा
एकं ध्येयं मृड शिवमयं कामयन्तेऽन्ततस्ते॥४

हे मृड, जो शाक्त, सौर, गणपति के उपासक, वैष्णव, पाशुपात, स्मार्त, श्रौत, श्रमण (बौद्ध, जैन आदि), आस्तिक, नास्तिक, और इन सभी सम्प्रदायों से इतर हैं, अपने मतों में निरत, और शिव की धारणा से अनभिज्ञ भी हैं, वे भी अंततः एक शिवमय (कल्याणकारी) गन्तव्य की कामना करते हैं।

नादब्रह्म त्रिनयन परं वैणिकाः साधयन्ति
शब्दब्रह्म त्रिपुरहर वा शाब्दिका निर्दिशन्ति।
शून्यं तत्त्वं गणितकुशला ये वदन्ति प्रगूढं
सर्वे तेऽपि स्वमतिकलितं शाम्भवं तद् भजन्ति॥५

हे त्रिलोचन, जो वैणिक (संगीतज्ञ) नादब्रह्म की साधना करते हैं, जो वैयाकरण शब्दब्रह्म का निर्देश करते हैं और जो गणितज्ञ शून्य तत्त्व को ही सबसे गूढ़ बताते हैं, वे सब अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार शिव-तत्त्व की ही उपासना करते हैं।

ग्रामे प्राच्यामरुणसमये कार्तिके रम्यमासे
गण्डक्याश्च त्रिदशतटिनीशोणसङ्गेऽतिरम्ये।
स्नातुं याता बहुजनपदेभ्योऽधिगच्छन्ति पान्था
नत्वा ते त्वद्धरिहरपदं चक्षुरानन्दलाभम्॥६

पूर्वाञ्चल के सोनपुर नामक ग्राम में रमणीय कार्तिक मास में प्रातः अरुणोदय के समय गण्डकी, सुरनदी गङ्गा और शोण के संगम में स्नान करने हेतु अनेक जनपदों से आए हुए यात्रिगण आपके हरिहर नाथ रूपी विग्रह को नमन कर नेत्रों के आनन्द का लाभ प्राप्त करते हैं।

तुङ्गोत्तुङ्गे शिखरभवने द्वारपालो मृगेन्द्रो
भोगिश्वासैः शमितशिशिरे तापहा शीतरश्मिः।
दीपज्योतिर् भुजगमणिभिर् निर्जितं त्वन्निवासे
वैराग्ये सम्भवति सकलं चित्रमैश्वर्यमीश॥७

हे शिव, पर्वत के उत्तुंग शिखर पर स्थित भवन में आपके निवास पर द्वारपाल सिंह है, सर्पों की श्वास वायु से प्रशमित शिशिर में ताप हरने के लिए शीतल-रश्मि चन्द्रमा है, और दीपक की ज्योति भी सर्प की मणि से पराजित हो उठी है। इस प्रकार आपके वैराग्य में भी यह विचित्र ऐश्वर्य सम्भव है।

ऐश्वर्यं ते प्रतिकणमहो संसृतौ व्याप्तमेवं
स्तोतव्यस्त्वं शशिधर ततो मृत्तिकाखण्डसङ्घे।
एवं ज्ञात्वा व्यसननिहतः स्वर्णशैलाभिलाषी
मुग्धः कस्माज्जगति यतते कारणात् सर्वकालम्॥८

हे शशिधर, इस सृष्टि के प्रत्येक कण में आपका ऐश्वर्य व्याप्त है। इसलिए आप मिट्टी के टुकड़े में भी पूजने के योग्य हैं। ऐसा जानकर भी व्यसन के मारे संसारी जन किस कारण से मुग्ध होकर सदा सोने के पहाड़ खड़े करने में लगे रहते हैं?

व्रात्योऽसि त्वं व्रतचतुर हे ध्यानलीनोऽसि शैले
जन्मातीतो द्विजपदगतस्त्वं भुजङ्गोपवीती।
संन्यस्तोऽपि त्वमसि परमश् चैत्यभस्मानुरागी
धृत्वा चार्धे वपुषि वनितां त्वं गृहस्थोत्तमोऽसि॥९

हे व्रत में निपुण शिव, आप सदा ध्यान में लीन रहने वाले व्रात्य हैं। आप जन्म से अतीत होकर भी द्विजत्व (दूसरे जन्म) को प्राप्त करने वाले सर्प-उपवीत-धारी हैं। आप काम के भस्म से भूषित परम संन्यासी हैं और अपने वाम भाग में स्वभार्या को धारण करने वाले उत्तम गृहस्थ भी हैं।

उद्वाहान्ते श्वशुरसदने शश्वदातित्थ्यपात्रं
भूत्वा भार्याकुशलकरयोर् भारमादाय सृष्टे:।
ज्येष्ठापत्यं विहगरथतः श्रीगिरिं प्रेषयित्वा
भक्तैरेको भवसि सुलभो भावलुब्धः पुरारे॥१०

हे पुरारे, आप भाव के लोभी हैं, जो श्वशुर के घर में रहते हुए, निरन्तर आतिथ्य के पात्र बनकर, भार्या के कुशल करों में सृष्टि का भार डालकर, और ज्येष्ठ पुत्र को मयूर वाहन से दक्षिण दिशा में श्रीशैल नामक पर्वत पर भेजकर केवल भक्तों के लिए सुलभ बने रहते हैं।

जीवोऽहं वा पिशुनपिशितस् त्वत्पशुः पाशबद्धो
मुक्तोऽहं वा चिरशिवमयः सच्चिदानन्दरूपः।
निर्लिप्तो वा तव करतलालम्बितोऽहं त्रिनेत्र
योऽहं सोऽहं त्वयि मम गतिः स्यान्न शङ्काऽस्ति काचित्॥११

हे त्रिनेत्र, मैं जीव हूँ अथवा पैशुन्य पिण्ड के समान आप के पाश में बँधा हुआ पशु हूँ। अथवा मैं सच्चिदानन्द शिवत्व को प्राप्त सदा मुक्त हूँ। मैं निर्लिप्त हूँ अथवा आपके हाथों पर आश्रित हूँ। मैं जो हूँ, सो हूँ, किन्तु मेरी गति निस्सन्देह आप में ही होनी चाहिए – इसमें शङ्का नहीं है।

नैषा तृष्णा गिरिश तव या पादरेणुप्रसक्ता
नायं कामः स्मरदहन यः शैवतत्त्वानुरागः।
तस्माच्छूलं त्रिशिखधर मे शोधयित्वा हृदिस्थं
शश्वत्तापं हर कुरु शिवं जन्मजन्मान्तरेषु॥१२

हे महादेव, जो आपके चरण-रेणु में आसक्त है, वह तृष्णा नहीं कहलाती है। जो शैव तत्त्व में अनुराग है, वह काम नहीं कहलाता है। अतः हे त्रिशूलधर, मेरे हृदय के शूल का शोधन कर मेरे सन्ताप को हर लीजिए और जन्म-जन्मान्तर में मेरा सदा कल्याण कीजिए।

चित्ते चिन्ता भवति न यदा स्वात्ममोक्षार्थमीश
चित्तं ग्लानिर् दहति न यदा लोकसन्तापवह्निः।
चित्ते वृत्तिर्मम पशुपते पाशवी नान्यथेयं
तस्माद् योगीश्वर कुरु सदा चित्तवृत्तेर्निरोधम्॥१३

हे महेश, मेरे चित्त में कभी अपने मोक्ष की चिन्ता नहीं होती है, और न ही मेरा चित्त संसार के संताप से उद्भूत ग्लानि के द्वारा दग्ध होता है। हे पशुपते, यह मेरी चित्त की वृत्ति पाशवी ही है, अन्यथा नहीं। अतः हे योगीश्वर, आप सदा मेरी चित्त की इस वृत्ति का निरोध कीजिए।

यावद्भक्तिर् विशति मयि ते शाभ्भवी क्षेमकर्त्री
तावच्छुद्धं भवति हृदयं सर्वसन्तापमुक्तम्।
भक्त्या हीनं भ्रमतु विषयारण्यमध्ये मनश्चेद्
भीतं चान्धं हतबलमिदं रक्षणीयं त्वयैव॥१४

जब तक आपकी कल्याणमयी शाम्भवी भक्ति मेरे भीतर रहती है, तब तक मेरा हृदय शुद्ध और संतापों से मुक्त रहता है। किन्तु यदि यह मन कभी भक्ति से हीन होकर विषयों के वन में भटक जाए, तो यह भयभीत, अंधा और निर्बल मन आपके द्वारा ही रक्षणीय है।

क्षीणो वक्रः शिरसि विधृतो लाञ्छितश्चैव चन्द्रो
वेगोद्दामं सहजचपलं गाङ्गतोयं जटायाम्।
कण्ठे व्यालो गरलदशनो धार्यते चेत् त्वयैवं
मह्यं स्थानं चरणयुगले त्वं कुतो नो ददासि॥१५

“जब क्षीण, वक्र और कलंकित चंद्र को भी आपने सिर पर धारण किया है, वेग से उद्दाम और सहज चपल गंगाजल को जटाओं में रखा है, और कंठ पर विषैले दाँतों वाले सर्प को धारण किया है, तो हे ईश, मुझे आप अपने चरणों में स्थान क्यों नहीं देते।”

रूक्षं शुष्कं परुषभरितं चूर्णितं चैत्यजातं
देहे दग्धं भसितमनिशं चन्दनायेत यस्य।
योऽनाथानामपि शरणदः पावनः कल्मषाणा-
मेकः स्वामी सुहृदपि स मे नापरं वेद्मि किञ्चित्॥१६

रूखा-सूखा, परुष, चूर्णित, चिता से उत्पन्न, और जला हुआ भस्म भी जिनके देह पर चंदन का कार्य करता है (विलेपित होता है), तथा जो अनाथों के नाथ और पतित-पावन हैं, वही मेरे एकमात्र स्वामी और बंधु हैं। इनके अतिरिक्त मैं कुछ भी नहीं जानता।

अन्वेष्टुं न क्वचिदपि यते कौशलं काव्यलोके
नालङ्कारान् न पदपटुतां नो गुणान् नार्थबोधम्।
मग्नः शुद्धे सततमतले शैवभावार्णवेऽहं
किं पश्येयं त्वदपरमतो नाथ शब्दप्रपञ्चम्॥१७

“हे नील-समुद्र के समान कण्ठ वाले नाथ! मैं काव्य-लोक में कहीं भी कौशल, अलंकार, पद-लालित्य, गुण अथवा अर्थबोध खोजने का प्रयास नहीं करता हूँ। मैं शुद्ध और अथाह शिव-भावना के अथाह सागर में मग्न होकर आपके अतिरिक्त अब और क्या देख सकता हूँ।”

गाङ्गं मूर्ध्नि प्रखरमनलं संदधानः स्वनेत्रे
दिक्षु प्रान्ते गगनवसनं चैत्यभूधूलिलेपम्।
कण्ठे मन्दं व्यजनमतुलं व्यालनिःश्वासवायुं
भक्तेभ्यस्त्वं नटसि कुतुकं भूतनाथो महेशः॥१८

अपने शीश पर गंगाजल, नेत्र में अग्नि, सभी दिशाओं में आकाश रूपी पवित्र वस्त्र और चैत्य-भूमि की धूल का लेप, तथा कण्ठ में सर्पों की अनुपम व्यजन-रूपी मंद निःश्वास वायु धारण करने वाले आप पंचभूतों के स्वामी भूतनाथ महेश भक्तों के लिए ही इस कौतुक का सृजन करते हैं।

तीरे तीरे स्रवतु सरिता शर्वशीर्षस्थगङ्गा
रेणौ रेणौ लसतु भसितं शम्भुदेहच्युतं यत्।
नादे नादे नदतु वरदो डम्बरः शूलपाणेर्
मन्दं मन्दं शिवमयमिदं स्यात्समस्तं जगन्मे॥१९

प्रत्येक तीर में शिव के मस्तक से गिरने वाली गंगा हो, प्रत्येक कण में शिव के शरीर से च्युत भस्म हो, और प्रत्येक ध्वनि में शिव के वरदायक डमरू का स्वर हो – इस प्रकार से धीरे धीरे समस्त संसार शिवमय हो जाए।

आयातस्त्वं मम नयनयोः स्वप्नकाले निशायां
प्रातर्लब्ध्वा धृतिमहमिमां लेखनीमाह्वयामि।
यद्यद् दृष्टं परमममृतं शाम्भवं त्वत्स्वरूपं
तन्मे मत्या सुपरिमितया कीर्तितुं प्रस्तुतोऽस्मि॥२०

हे महेश, आप स्वप्न के समय मेरे नेत्रों में पधारे थे। प्रातः मैं जाग्रत चेतना को पाकर आपके परम और अमृत शैव स्वरूप का मैंने जिस प्रकार दर्शन किया, उसी प्रकार अपनी सीमित बुद्धि से उसका यशोगान करने हेतु अपनी इस लेखनी का आह्वान करता हूँ।

पूजार्चाभिः स्तवननमनैरङ्घ्रिरत्ने त्वदीये
नष्टोऽयं मे हृदयनिभृतो जाड्यमोहान्धकारः।
आशीर्वादात् तव च रजनीध्वान्तदैत्यान्तिकेयं
मार्गालोकं प्रकटयति मे पूर्णिमाचन्द्रकान्तिः॥२१

हे शिव, आपके चरण-रत्नों पर पूजा और अर्चना से मेरे हृदय का जड़ता रूपी अन्धकार नष्ट हो गया है और आपके आशीर्वाद से यह रात्रि के तिमिर-रूपी दैत्य का अन्त करने वाली पूर्णिमा की चन्द्र-कान्ति मेरे मार्ग के प्रकाश को प्रकट करती है।

ब्रह्मा निष्ठस् तपसि विमुखो वासवः सादितेयः
विष्णुः सुप्तो विपुलजलधौ वित्तमत्तो धनेशः।
रुष्टाः सर्वे यदि मयि विभो नास्त्युपायः कथञ्चित्
कल्याणाय त्वमसि शरणं त्वां विना कं प्रपद्यै॥२२

हे विभो, ब्रह्मा तप में लगे हैं, इन्द्र और सूर्य मुझसे विमुख हो गए हैं, विष्णु क्षीर-सागर में सोए हैं और कुबेर अपने धन के मद में चूर हैं। जब सभी मुझपर रुष्ट हो गए हैं तो अपने कल्याण आपके शरण के अतिरिक्त मेरे पास कोई उपाय नहीं है। आपके बिना मैं किसकी शरण लूँ?

पूर्णं स्तोत्रं भवतु किमिदं कोटिकल्पान्तरेषु
नादिर्मध्यः परिणतिरपि त्वद्गुणानामनन्त।
इत्थं स्तुत्वा कुशमुखमतेः शान्तिमाप्नोत् कवित्वं
शैवानन्दं प्रथयतु च तत्पाठकेभ्यो गिरीशः॥२३

हे महादेव, क्या यह स्तोत्र करोड़ों कल्पों में भी कभी पूर्ण हो सकता हैं? हे अनन्तस्वरूप, आपके गुणों का आरम्भ, मध्य और अन्त ही नहीं है।”- इतना कहकर कुशाग्र नामक कवि के कवित्व ने शान्ति को प्राप्त किया। इसके पाठकों को भगवान् महेश शैवानन्द प्रदान करें।

2 thought on “श्रीकुशाग्रविरचित-शिवस्तवराजः”

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Related Post