A Hundred Verses Dedicated to Devi Sarasvati (In Progress)



श्रीशारदाशतकम्

यां देवीं मुनयो वदन्ति परमं सच्चित्सुखं निर्जरं
वाग्देवीं कवयश्च शुद्धमनसा भक्तादयश्चण्डिकाम्।
गीर्वाणाः सुरभारतीं नृपतयो लक्ष्मीं च यां देवतां
वाणी मे वदने सदा वसतु सा विद्याप्रदा शारदा॥१

जिस देवी को ऋषि सच्चिदानंद परब्रह्म, शुद्ध मन वाले कवि वाग्देवी, भक्त चंडिका, देवगण सुरभारती, और राजा गण लक्ष्मी कहकर सम्बोधित करते हैं, वह विद्यादायिनी शारदा मेरे मुख में वाणी के रूप में सदा निवास करे।

या देवी परमात्मबोधवरदा पद्मासनाङ्कस्थिता
या भृङ्गालिसमर्चिताम्बुजपदा सारङ्गबालेक्षणा।
या तारापतिभासमानवदना देदीप्यमानालिका
वाणी मे वदने सदा वसतु सा विद्याप्रदा शारदा॥२

जो देवी परमात्म तत्त्व के ज्ञान का वरदान देती हैं, पद्मासन के अङ्क में बैठती हैं, जिनके कमल-समान चरण भ्रमरों की पङ्क्ति के द्वारा पूजे जाते हैं, जिनके नेत्र हिरन के बालक के समान हैं, जिनका मुख तारापति चन्द्रमा के समान प्रकाशित है, और जिनका ललाट देदीप्यमान है, वे विद्यादायिनी शारदा मेरे मुख में वाणी के रूप में सदा निवास करें।

पादौ पद्मजितौ मुखं रतिजितं यस्या लताजिद्वपुर्
बाहू कञ्चुकिशुण्डिशुण्डविजितौ नेत्रे प्रभाजिच्छुभे।
कान्तिः कौमुदशर्वरीशविनिकृद् वीणारवो विश्वजिद्
वाणी मे वदने सदा वसतु सा विद्याप्रदा शारदा॥३

जिन्होंने पैरों से कमल, मुख से शृंगार, शरीर से लता, हाथों से सर्प और हाथी के सूँड, नेत्र से प्रभा, कांति से शरद ऋतु के चन्द्रमा, और वीणा के स्वर से संसार भर को जीत लिया, वे सरस्वती देवी मेरे मुख में सदा निवास करें।

या देवी विधिविष्णुशम्भुविनुता हेमेन्दुदेहोज्ज्वला
ब्रह्माणी सितपङ्कजे स्थितवती श्वेताम्बरालङ्कृता।
गायन्ती पिकनादजित्कलरवं कौतूहलानन्ददा
वाणी मे वदने सदा वसतु सा विद्याप्रदा शारदा॥४

जो देवी, ब्रह्मा, विष्णु और शिव द्वारा वन्दित, हेम और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, ब्रह्माणी, श्वेत पंकज पर विराजने वाली, शेवताम्बरा, कोकिल के स्वर को अपने गान से जीतने वाली और कौतूहल-रूपी आनंद देनी वाली है, वे विद्यादायिनी शारदा मेरे मुख में वाणी के रूप में सदा निवास करें।

जिह्वाग्रे जलजासने कविकुले साहित्यवृन्दावने
भक्तानां हृदये मरालविरटे वर्णे स्वरे चाक्षरे।
वीणानादमृदङ्गतालललिते सङ्गीतमूले स्थिता
या वाचं सततं तनोतु मम सा विद्याप्रदा शारदा॥५

जो जिह्वा के अग्रभाग, कमल के आसन, कवियों के वंश, साहित्य रूपी वृन्दावन, भक्तों के ह्रदय, हंस के स्कन्ध, वर्ण, स्वर, अक्षर, और वीणा के नाद व मृदंग के ताल से ललित संगीत के मूल में स्थित हैं, वे विद्या-प्रदायिनी सरस्वती देवी मेरी वाणी का सदा विस्तार करें।

या विश्वे प्रथमा च विश्वजननी या विश्वसम्भाविता
या विश्वेशकृपाप्रसादफलिता या विश्ववारा शिवा।
या विश्वैककुटुम्बदर्शनसुधामातन्वते विश्वतः
सा विश्वे प्रतिभातु धर्मशिखया श्रीवैदिकी भारती॥६

जो विश्व में प्रथम, विश्व की जननी, विश्व द्वारा सम्मानित, जगदीश्वर की कृपा से फलीभूत, विश्व द्वारा वरेण्य, कल्याणमयी, और समस्त विश्व में “वसुधैव कुटुम्बकम्” के दर्शन के अमृत का प्रसार करने वाली है, वह वेदों की सरस्वती विश्व में धर्म की दीपशिखा से प्रकाशित होती रहे।

कण्ठे संस्कृतभारती करतले कृष्णानना लेखनी
जिह्वायां कवितासुधा नयनयोर्वर्णाक्षराद्यञ्जनम्।
सद्भक्तिर्हृदि गीतिका श्रवणयोर्या वल्लकीझङ्कृता
सर्वाङ्गे धृतिशीलचन्दनरसः सारस्वताभूषणम्॥७

कंठ में संस्कृत वाणी, हाथों में कृष्ण-वर्ण लेखनी, जिह्वा पर कविता की सुधा, नयनों में वर्णाक्षर रूपी अंजन, ह्रदय में सद्भक्ति, कानों में वीणा से झंकृत गीतिका और सभी अंगों में धृति और शील रूपी चन्दन का रस – यही सारस्वत (देवी सरस्वती के अनुरूप अथवा सरस्वती के भक्तों के) आभूषण हैं।

आदौ रामकथासु मन्थरमतिर् धर्मच्युता मन्थरा
कैकेयी कपटोन्मुखा रघुपतिर् दत्ताटवीशासनः।
पौलस्त्येन हृता ततो जनकजा निद्रां गते स्वानुजे
रक्षोवंशविमर्दनं च विहितं सूत्रेण ते शारदे॥८

हे सरस्वती माता, रामकथा के आरम्भ में मंदबुद्धि मंथरा धर्म से पतित हो गयी, कैकेयी कपट के उन्मुख हुई, श्री राम को वन का राज्य मिला, और रावण द्वारा सीताजी का अपहरण भी तभी हुआ जब उसका अनुज घोर निद्रा में निरत था। इस प्रकार आप ही के निर्देशन में राक्षसों के वंश का विनाश संभव हुआ।

पातङ्गं सुहृदां मनश्च कविता भावाग्निविद्युच्छिखा
दीपस्तत्र विदग्धमानसतलं जिह्वा मुखे वर्तिका।
सभ्यानां करपल्लवध्वनिकृतः साहाय्यदो मारुतः
सर्वं गव्यवदाहुतं च कविभिस् त्वज्ज्योतिषे शारदे॥९

हे सरस्वती, आपके प्रकाश के लिए रसिक सहृदयों का मन ही पतङ्ग बना है, भावाग्नि से प्रद्योतित कविता शिखा बनी है, विदग्ध का मानस-पटल ही दीपक है, मुख की जिह्वा ही बाती है, सभासदों की तालियों की ध्वनि उसमें सहायक पवन है, और कवियों के द्वारा सब कुछ घी के समान आहुत कर दी गई है।

ब्रह्मज्ञे प्रणवात्मिका कविगणे वागात्मिका शाब्दिकी
क्षात्राणां विजयात्मिका च वणिजामर्थात्मिका निश्चला।
देवानां दमनात्मिका मनुकुले दानात्मिका निःसृता
दैत्यानां च दयात्मिका सुनिहिता सा पातु वो भारती॥१०

जो ब्रह्मज्ञ में प्रणव-रूपी, कवियों में वाक्-रूपी और शाब्दिकी, क्षत्रियों में विजय-रूपी, वणिक् जनों में अर्थमयी, देवों की दमन-रूपी, मनुष्यों की दान-मयी और दानवों की दया-मयी भारती है, वह आपकी रक्षा करे।

शुभ्राब्जपीठासनसंस्थितायां
शुभ्रद्विजेशार्चितपादुकायाम्।
शुभ्राभ्रराकापतिजिन्मुखायां
वाचो रमन्तां मम शारदायाम्॥११

श्वेत कमलासन पर स्थित, श्वेत खगपति हंस के द्वारा पूजित पादुकाओं वाली, तथा श्वेत मेघ व चन्द्रमा पर विजयी मुख वाली शारदा देवी में मेरी वाणी रमण करे।

नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनि।
कदा त्वां शारदापीठे संस्थितामीक्षितास्महे॥१२

कदा निष्कण्टके क्षेत्रे निरातङ्कदरीतले।
त्वामेव शारदापीठे संस्थितामीक्षितास्महे॥१३

रङ्गभूमिमवलोक्य साम्प्रतां
यत्कुशाग्रमतिमाश्रयद् गिरा।
तन्मृणालतनुमध्यमोचित-
पादपद्मदलसूक्ष्मतावशात्॥१४

अपने लिए योग्य रंग-भूमि देखकर वाणी ने जो कुशाग्र-बुद्धि का आश्रय ले लिया, वह तो उन मृणाल के समान प्रतनु देवी के अनुरूप चरण-कमलों की सूक्ष्मता के कारण था।

स्वर्णतन्त्रीकराघर्षपरिश्रान्ते सरस्वति।
स्वागतं ते ममागत्य वक्त्रतन्त्रीं निनादय॥१५

स्वर्ण निर्मित वीणा के तारों को हाथ से घिसने के कारण परिश्रान्त हुई, हे माता सरस्वती! आपका स्वागत है। आप आकर मेरी मुख-रूपी तन्त्री (वीणा के तार) को बजाएँ।

रसनायां रसानन्दलहरी प्रवहेन्मम।
अम्बा नदीतमा देवीतमा नित्यं सरस्वती॥१६

मेरी जिह्वा पर रस-रूपी आनन्द की लहरी, सभी देवियों और नदियों में सर्वोत्तम माता सरस्वती सदा प्रवाहित होती रहें।

प्रेरणा – “अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति” (ऋग्वेदः, २.४.१६)

न्यस्तं येन शिरो भक्त्या पादयोस्तव धीमता।
तस्य त्वं वशगा वाणि निःश्वासपथवर्तिनि॥१७

हे निःश्वास के मार्ग पर चलने वाली वाणी! जिस बुद्धिमान् ने अपना शीश आपके चरणों में नवाया, आप उसके वशीभूत हो जाती हैं।

सर्वशब्दमयी वाणी नदी सर्वपयोमयी।
सर्वदेवमयी ब्राह्मी त्रिधा भूत्यै सरस्वती॥१८

सभी शब्दों के स्वरूप में वाणी, समस्त जल के स्वरूप में नदी, और सभी देवों के स्वरूप में ब्रह्माणी – ये हमारे कल्याण के लिए तीन रूपों में सरस्वती है।

कटाक्षपतनं देव्या विधेश्चानवधानता।
मया सृष्टिक्षणे लब्धं कवित्वावसरद्वयम्॥१९

There are two advantages that I secured towards becoming a poet at the moment of my creation – the graceful side-glance of Sarasvatī and the inattention of Brahmā.

शारदे परिपाकोऽयं कृपायास्ते यतो जनः।
पारमेष्ठ्यपदं लब्ध्वा पुनः स्वाध्यायतत्परः॥२०

हे सरस्वती, यह आपकी कृपा का परिणाम है, जिससे कोई मनुष्य परमेष्ठी (ब्रह्मा) के पद को पाकर भी पुनः स्वाध्याय (वेदाध्ययन) में तत्पर हो जाता है।

ब्रह्मणा लिखितं भालेऽप्यन्यथा कर्तुमुत्सहे।
तत्र लेपयितुं याचे शारदापादचन्दनम्॥२१

ब्रह्मा द्वारा ललाट पर लिखे गए (भाग्य) को बदलने का उत्साह रखता हूँ। वहाँ लेप करने हेतु मैं शारदा के चरणों के चन्दन की याचना करता हूँ।

सर्वदा सर्वविद्यानां सारदा सद्विचारदा।
विप्लुष्टचित्तवैरस्यपारदा पातु शारदा॥२२

सर्वदात्री (अथवा सदा), सभी विद्याओं का सार देने वाली, सुविचार-प्रदायिनी, और चित्त की नीरसता को जला डालने वाली पारद (पारा)-स्वरूपिणी शारदा (हमारी) रक्षा करे।

प्राज्ञेष्वपि यदा रुष्टा शारदा चिद्विनाशिनी।
मन्देष्वपि यदा प्रीता कवित्ववरदायिनी॥२३

Sarasvatī, when displeased on even the learned ones, destroys their judgement. However, when pleased on even the dull ones, she bestows the boon of poet-hood.

अनिकेतोऽयमालम्ब्य कल्याणैकनिकेतनम्।
सम्भृतो मोदते श्लक्ष्णं शारदाचरणाम्बुजम्॥२४

Seeking refuge in Sarasvatī’s tender lotus-like feet, which are the abode of auspiciousness, this Aniket (one without an abode) finds support and rejoices.

माता मे शारदा देवी वेदपाणिः पिता विधिः।
बान्धवाः कवयः सर्वे स्वदेशो रसिकालयः॥२५

माता है शारदा देवी, वेदपाणि पिता विधि।
बन्धु मेरे कविश्रेष्ठ, स्वदेश रसिकालय॥

विद्याप्रदात्रि मतिदात्रि गुणप्रदात्रि
साहित्यशास्त्रगतिदात्रि कवित्वदात्रि।
वाक्शक्तिदात्रि लिपिदे प्रतिभाप्रदात्रि
किं किं ददासि जननि स्वजनाय न त्वम्॥२६

हे विद्या, बुद्धि, गुण, साहित्य-ज्ञान, कवित्व, वाणी, लिपि व प्रतिभा देने वाली माता, आप अपने जन को क्या-क्या नहीं देतीं!

आभिजात्यगुणश्वेतः शब्दार्थच्छदसंयुतः।
शारदावाहको जीयात् कवितामानसालयः॥२७

Victory to him, the bearer of Sarasvatī, who is pure due to intrinsic qualities, who is endowed with two wings representing word and meaning, and who resides in the Mānasa lake of poetry.

अस्थाने बालिशो ब्रूते स्थाने ब्रूते च कोविदः।
स्थानास्थानविवेकोऽयं वक्तुः सारस्वतो गुणः॥२८

A fool speaks at improper occasions; a wise man speaks at proper junctures. This ability of the speaker to distinguish between proper and improper occasions is bestowed by Sarasvatī.

कारुण्यसिन्धुकल्लोलस्तिमितापाङ्गलोचने।
तरङ्गय मयि स्निग्धे नयने तव भारति॥

हे करुणा-रूपी सिन्धु में उठी लहरों से सार्द्र अपांग नेत्रों वाली माता सरस्वती! अपने स्निग्ध नेत्रों को मुझपर तरंगित करें (मेरी ओर दृष्टिपात करें)।

अन्वेष्टव्या क्व भूगर्भे विप्रलुप्ता सरस्वती।

प्रत्यक्षं स्यन्दमाना सा कवीनां रसनातले॥

Where, in the womb of the earth, should one search for the lost Sarasvatī? She is visibly flowing on the tongues of poets.

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