नर्मदास्रग्विणी



आम्रकूटात् स्खलन्ती कटौ भारते
कोटिलिङ्गं समर्च्य स्वकूलेषु या।
शभ्भुपादाब्जरेणुं शिरोधारिणी
पातु सा वः सदा शर्मदा नर्मदा॥1

जो भारत के कटिप्रदेश में अमरकंटक (आम्रकूट) से निकल, अपने तटों पर करोड़ों बाण लिंगों की अर्चना कर, शिव-चरणों की धूल को सिर पर धारण करती है, वह नर्मदा हमारी रक्षा करे।

नक्रचक्रालया मीनकूर्मालया
नागकोकालया बाणलिङ्गालया।
भक्तिनीरालया सर्वतीर्थालया
पातु सा वः सदा शर्मदा नर्मदा॥2

जो मकर, मीन, कच्छप, नागों, और मेढकों का निवास स्थान है, जो बाणलिंग का गृह है, जो भक्ति रूपी जल से पूर्ण और सभी तीर्थों का आश्रय है, ऐसी आनंददायिनी नर्मदा देवी हमारी रक्षा करे।

नीलवर्णा कदा शुभ्रवर्णा कदा
हेमवर्णा कदा ताम्रवर्णा कदा।
विन्ध्यशैलाटवौ कृष्णवर्णा कदा
पातु सा वः सदा शर्मदा नर्मदा॥3

जो कभी नील, कभी श्वेत, कभी स्वर्ण वा ताम्र वर्ण की और विन्ध्याचल के जंगलों में कृष्ण वर्ण की हो जाती है, ऐसी आनंददायिनी नर्मदा देवी हमारी रक्षा करे।

सोमपानैषणा चेद्यदा जीवने
नर्मदातोयपीयूषमास्वादय।
स्वेदबिन्दूर्मिजाता हि या धूर्जटेः
पातु सा वः सदा शर्मदा नर्मदा॥4

यदि इस जीवन में सोमपान करने की इच्छा हो तो नर्मदा के जल-रूपी अमृत का स्वाद चखो। जो शिव के स्वेद कणों से उत्पन्न हुई है, ऐसी आनंददायिनी नर्मदा देवी हमारी रक्षा करे।

नैव हे सोमकन्ये क्वचित् त्वत्समो
भूतले मर्त्यलोकोपकारे क्षमः।
दर्शनात्ते फलं प्राप्यते यन्नरैर्-
गाङ्गतीर्थे तथा नो फलं मज्जताम्॥5

हे सोमकन्या, आपके समान भूमि पर मर्त्यों का उपकार करने वाला कोई नहीं है। जो फल आपके दर्शन से मिलता है, वह गंगा जी में स्नान करने वालों को भी नहीं मिलता।

वक्तुकामस्तवैश्वर्यगाथावलिं
कोऽस्मि तीरे त्वदीये पुरा शङ्करः।
श्रीगुरोः पादपद्मं स्वकं लब्धवां-
स्त्वत्प्रसादेतरं कारणं तत्र किम्॥6

आपकी ऐश्वर्य-गाथा को गाने वाला मैं कौन होता हूँ? जब आदिशंकर ने आपके तट पर अपने गुरु गोविन्दपाद जी के चरणों को प्राप्त किया, तब आपकी कृपा के अतिरिक्त उसका और क्या कारण था?

चारुरूपे जगत्कूपमग्नो नर-
स्त्वत्कटाक्षाद् विरूपाक्षलोके यदा।
देवभूपालवृन्दैर्मुदा वन्द्यते
ज्ञायते केन ते पानलभ्यं पदम्॥7

हे सुंदर रूपमती, जब संसार-कूप में गिरा मानव आपके कटाक्ष से शिवलोक में इन्द्रादि देवों से पूजित होता है, तब आपके जल पान से मिलने वाले पद को कौन जानता है?

कृष्णकाकाभिरूपा तु मन्दाकिनी
त्वत्तटे स्नातुमायाति गर्वं विना।
व्याधिबाधाविमुक्त्यै गिरौ निर्जने
तां सभीतां विनीतां पुनीतां कुरु॥8

हे नर्मदे, कृष्ण काक के रूप में गंगाजी भी आपके निर्जन तट पर गर्व त्यागकर व्याधियों से मुक्ति हेतु स्नान करने आती हैं। उन भयभीत व विनीत गंगाजी को आप पुनः पुनीत कीजिए।

निर्मलं ते जलं नात्र मे संशयः
सर्वदुर्वारभूभारसंहारिणि।
दर्दुरैः स्तूयमाने तटे हेलया
शर्करे शङ्करत्वं यतस्तन्यते॥9

हे भू-भार-हारिणि नर्मदे, आपका जल अमृत है, इसमें मुझे संशय नहीं, क्योंकि उससे तो खेल-खेल में ही मंडूकों के द्वारा निनादित कंकड़ों में भी शंकरत्व का संचार हो जाता है।

यक्षगन्धर्वदेवाङ्गनामन्दिरे
कोटिकन्दर्पनृत्योत्सवानन्दिते।
ये रमन्ते सुरा देवि किं तैर्मम
त्वां विना कोऽत्र जानाति दुःखं मरोः॥10

हे नर्मदे, यक्ष, गन्धर्व और अपसराओं से भरे और कामसे आनंदित भवन में जो देवगण रहते हैं, उनसे मुझे क्या प्रयोजन? आपके बिना मरुस्थल का दुःख कौन समझ सकता है?

यद्विधेः संसृतौ स्थाणुजं हीनजं
स्पर्शमात्रेण लोकेषु सन्तापदम्।
नामृताद्वञ्चितं तत्तवालम्बनाद्
वत्सले नर्मदे ते तटे कण्टकम्॥11

हे नर्मदे, जो ब्रह्मा की सृष्टि में स्थाणु से जन्य, हीन, और छूने से ही कष्ट देने वाला है, वह तट का कंटक (अमरकंटक) भी आपके सहारे अमृत से वंचित नहीं रहा।

एकवारं मया बाल्यकाले तव
स्पृष्टमेवाम्बु मातर्विना श्रद्धया।
तत्कणे चेत्प्रसादस्तवासीत् तदा
लोकलोकोत्तरं मे भवेन्मङ्गलम्॥12

हे माता, एक बार बाल्यकाल में मैंने आपके एक जल कण को बिना श्रद्धा के ही छू दिया था। यदि उस कण में भी आपका प्रसाद निहित था, तो लोक-लोकोत्तर में मेरा मंगल ही हो।

किं भयं मे यमात् त्वत्प्रतापाद् यदा
बाणलिङ्गाभिधेयं शिलामण्डलम्।
क्षिप्तमानन्दभावेन वीचौ मया
लक्षरूद्राभिषेकः कृतस् तत्क्षणे॥13

अथवा हे नर्मदा, मुझे यम का कैसा भय? मैंने तो आपके प्रताप से बाण-लिंग रूपी शिला खंडों को आपकी लहरों में फेक-फेक कर उसी क्षण एक लाख रुद्राभिषेकों का अनुष्ठान संपन्न किया।

एवमेवार्पितं पूजनं नर्मदे
त्वत्पदाम्भोजयुग्मे मया वाङ्मयम्।
देहि सप्ताद्रिविन्ध्याद्रियोगात्मिकां
स्वीयधारामिवेशाच्युतैक्ये मतिम्॥14

हे नर्मदे, इस प्रकार मैंने आपके चरण-कमलों में यह वाङ्मय पूजन अर्पित किया। मुझे अपनी सप्ताद्रि (सतपुरा) और विन्ध्याद्रि को जोड़ने वाली धारा के समान हरि और हर में अद्वैत बुद्धि दीजिए।

जन्मजन्मान्तरे यत्कृतं चाकृतं
यन्न दत्तं हुतं वा समाराधितम्।
तत्समस्तं क्षमस्व क्षमारूपिणि
मां कुरुष्व त्वदीयं कृपाभाजनम्॥15

हे क्षमामयि देवि, जन्म-जन्मांतर में किए और नहीं किए गए कर्मों को, जैसे दान, यज्ञ और आराधना के अभाव को, आप क्षमा करें एवं मुझे अपनी कृपा का पात्र बनाएँ।

अनिकेतकृतं स्तोत्रं नर्मदाभक्तिभावितम्।
पठित्वा पात्रतां याति साधकः श्रीशिवाशिषः॥

कवि कुशाग्र अनिकेत द्वारा रचित नर्मदा देवी की भक्ति से परिपूर्ण इस स्तोत्र को पढ़कर साधक भगवान् शिव के आशीर्वाद का पात्र बनता है।

1 thought on “नर्मदास्रग्विणी”

  1. साधुवादा आशीश्च 🙌 भोः चिरंजीव। माता नर्मदेव निस्सरति कवनं भवतो रसिकानां प्रमोदाय।

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