यद्यपि संस्कृत में रुचि मुझे बाल्यकाल से रही है, तथापि इसमें अर्वाचीन लेखन भी होता है – इसका मुझे ज्ञान नहीं था। अन्य विषयों में व्यस्त रहने के कारण अधिक शोध का समय भी नहीं था। बहुत बाद में मुझे पुस्तकालय में दो आधुनिक कवियों के ग्रन्थ प्राप्त हुए – एक डॉ॰ रमाकान्त शुक्ल जी का “भाति मे भारतम्” एवं डॉ॰ निरञ्जन मिश्र जी का “राजनीति-शतकम्”। इन ही दो पुस्तकों के द्वार से मैंने स्वल्प ज्ञान अर्जित कर अगस्त २०१८ से संस्कृत में मौलिक लेखन के जगत् में प्रवेश किया। तत्पश्चात् कोरोना-काल में अन्तर्जाल के माध्यम से अनेक विद्वज्जनों का मार्ग-दर्शन मिला।
“भाति मे भारतम्” के कुछ पद्य मेरी नवमी कक्षा के पाठ्यपुस्तक के सम्मिलित थे। किन्तु लेखक का नाम नहीं दिया था। अतः मैं उसे किसी प्राचीन कवि की रचना मान बैठा। बाद में एक बार दूरदर्शन पर शुक्लजी के साक्षात्कार को देखकर मुझे उनके विपुल कवित्व का परिचय मिला।
यद्यपि मेरा उनसे परिचय नहीं था, तथापि आज जब यशःशेष शुक्लजी के शिवलोक-गमन का दुःखद समाचार मिला तो विगत चार वर्षों के एक गुरु के अभाव को मैंने सहसा अनुभव किया। लगभग एक वर्ष से मुझे उनका आशीर्वाद “वैदिकगणः” तथा “अमरवाणी-परिषद्” के द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलनों में मिलता रहा। मेरे जन्मदिवस पर भी उन्होंने आशीर्वचन तथा शुभकामना प्रेषित कर मुझे कृतार्थ किया था।
खेद है कि १५ वर्षों से दिल्ली में ही मेरा स्थायी निवास होने के बाद भी अधिक समय भारत से बाहर रहने और कोरोना के प्रतिबन्धादि के कारण मैं कभी पं॰ शुक्लजी के दर्शन नहीं कर सका। मैं संस्कृत-साहित्य की इस महान् विभूति को प्रणतिपूर्वक श्रद्धा-पुष्प अर्पित करता हूँ।
इसमें संशय नहीं कि-
तेऽमरत्वङ्गता नूनं कालव्याधिविवर्जितम्।
येषामद्यापि काव्येन शारदा तरुणायते॥
“वे निश्चय ही काल की व्याधि से मुक्त अमरत्व को प्राप्त हुए हैं, जिनके काव्य से आज भी शारदा तरुणी हो जाती है।”