योगस्थितस्तदपि भोगस्थितोऽस्तु भवरोगस्थितोऽपि रसिकस्
त्यागस्थितोऽस्तु रतिरागस्थितोऽस्तु हतभागस्सभासु सुहृदाम्।
कान्तारतस्तदपि कान्तारतश्चलतु चिन्तां विहाय मनसा
धाटीस्थितोऽस्तु सुरवाटीस्थितोऽस्तु परिपाटीं कविस्त्यजतु न॥
“चाहे योग में स्थित हो अथवा भोग में स्थित हो, अथवा संसार रूपी रोग से ही ग्रस्त क्यों न हो; चाहे त्याग में लगा हो अथवा रति राग में लगा हो, अथवा सुहृदों की सभा में अपने यथोचित भाग से वंचित हो; चाहे घर में निरत हो अथवा कठिन मार्ग से चल रहा हो, चाहे धाटी (शत्रुओं के सम्मुख) में हो अथवा देवताओं की वाटिका में स्थित हो, सभी चिन्ताओं को मन से निकाल कर किसी कवि को अपनी परिपाटी (काव्य लिखने का क्रम) नहीं त्यागनी चाहिए।”