Hṛdayamapi te Kṛṣṇa kaṭhinam



“हृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्”

(बाणभट्ट के ससुर मयूर भट्ट की एक शृङ्गार-परक पंक्ति “हृदयमपि ते चण्डि कठिनम्” को भक्ति रस में परिवर्तित कर “हृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्” का १२ शिखरिणी पद्यों में निन्दा-स्तुति काव्य की शैली में विस्तार किया गया है।-)

कठोरं पाषाणान्मुनिचरणघाताङ्कितमुरो
दृढौ बाहू वज्रादसुरपतिवक्षोविदलनौ।
शिलाकाष्ठाकारं प्रकटयसि रूपं न मसृणं
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥१

हे कृष्ण, भृगु ऋषि के चरण-प्रहार से अंकित हुआ आपका वक्षस्थल पाषाण से भी कठोर है। असुर-राज की छाती को चीरने वाली आपकी भुजाएँ वज्र से भी कठोर हैं। आप शिला (शालग्राम) और काठ (जगन्नाथ) के आकार में अपना अकोमल रूप प्रकट करते हैं। क्या आश्चर्य कि इन सबसे कठोर आपका हृदय है?

गृहत्यागी सिंहासनसहितमारण्यकहितः
प्रियात्यागी लोकाभिमतपरिपालस्त्वमभवः।
ततो बन्धुत्यागी निजवचनरक्षाव्रतपरः
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥२

हे कृष्ण, आपने आरण्यकों (वनवासी-मुनियों) के हित में सिंहासन के साथ गृह का भी त्याग कर दिया। लोक के अभिमत का पालन करने वाले आप पत्नी के त्यागी भी बने। पुनः अपने वचन की रक्षा करने के लिए आपने भाई का भी त्याग कर दिया। तब कैसा आश्चर्य कि आपका हृदय भी कठोर ही है?

व्रजत्यागी गोपीप्रणयपरिरम्भैरनियतः
कुलत्यागी वृष्णिप्रणिहननकाले त्वमभवः।
रणत्यागिन् मौल्यामुवहिथ यशोलाञ्छनमणिं
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥३

आप व्रज के त्यागी हैं और गोपियों के प्रणय-पाश से अनवरुद्ध हैं। आप वृष्णियों के संहार के समय कुल के त्यागी भी हो गए थे। हे रण-त्यागी, आपने अपने शीश पर यश में लाञ्छन-स्वरूप मणि धारण किया था। तब कैसा आश्चर्य कि आपका हृदय भी कठोर है?

वृतं वक्षःस्थानं कनककवचाच्छादितमिदं
बिभर्षि त्वं तस्मिन् कुलिशजरठं कौस्तुभमणिम्॥
ततस्ते कान्तायै भवति मृदुपर्यङ्करचना
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥४

हे कृष्ण, आपका यह छिपा हुआ वक्ष-स्थल स्वर्ण के कवच से आच्छादित है। आप उस पर वज्र से कठोर कौस्तुभ मणि को धारण करते हैं। तब कहीं वह आपकी भार्या के लिए कोमल शय्या का काम करता है। अतः कैसा आश्चर्य कि आपका हृदय भी इन सबसे कठोर है?

घनीभूता लक्ष्मीर् मणिरजतहेमाकरवती
जडीभूता स्पर्शादुपलचयगर्भा वसुमती।
द्रवीभूता कृष्णा तव सहचरी भानुतनया
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥५

हे कृष्ण, आपके स्पर्श से मणि, रजत और स्वर्ण की खान लक्ष्मी घनीभूत हो गई, गर्भ में रत्न धारण करने वाली पृथ्वी जडीभूत हो गई, और आपकी सहचरी सूर्यपुत्री यमुना द्रवीभूत हो गई। अतः क्या आश्चर्य कि आपका हृदय भी कठोर ही है?

फलीभूता भक्तिर् हृदि विरहशोकानलमयी
निकुञ्जे गोपीनां तव गमनवेलाविकसिता।
तदा सान्त्वं शुष्कं प्रहितपटुमित्रोद्धववचः
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥६

हे कृष्ण, आपके जाने की वेला में निकुंज में गोपियों के हृदय में आपकी भक्ति विरह की शोकाग्नि में फलीभूत हुई। उस समय उनकी सान्त्वना के लिए प्रेरित आपके चतुर मित्र उद्धव के शुष्क वचन थे। तब क्या आश्चर्य कि आपका कठोर ही है?

प्रतिज्ञानात् पूर्वं तव शरणमेत्याच्युत नरो
व्रजेद् वित्तध्वंसं परिजनवियोगं क्रमतया।
पुनर् निर्विण्णः स्यात् कृतनवसुहृत् त्वत्करुणया
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥ ७

हे अच्युत, आपकी प्रतिज्ञा के अनुसार कोई भक्त आपकी शरण पाकर सदा क्रमशः धन-हानि और स्वजनों का वियोग भोगता है। पुनः आपकी कृपा से वह निर्वेद से भरकर नए मित्र बनाता है। अतः हे कृष्ण, क्या आश्चर्य कि आपका हृदय कठोर ही है!

(प्रेरणा – भगवान् ने श्रीमद्भागवत (१०.८८.८-९) में प्रतिज्ञा की है कि वे जिस पर कृपा करेंगे, पहले उसका धन नष्ट कर देंगे और उसे उसके मित्रों से बिछुड़वा देंगे।- यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनै: । ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दु:खदु:खितम् ॥ स यदा वितथोद्योगो निर्विण्ण: स्याद् धनेहया । मत्परै: कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम् ॥)

दरिद्रः श्रीदाम्नो नयनविकलः सूर इव ते
तुलस्या हेयश्चाहमपि कुलहीनाश्रितजनः।
कुतः सर्वेशत्वं त्वयि यदि न दीनोऽद्धृतिरतिः
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥८

हे कृष्ण, मैं सुदामा से दरिद्र, सूरदास के समान नेत्रों से विकल, तथा तुलसीदास से भी त्याज्य और कुलहीन आपका आश्रित जन हूँ। यदि आपमें दीनों का उद्धार करने की इच्छा नहीं है तो आपका सर्वेश्वरत्व कैसा है? अतः क्या आश्चर्य कि आपका हृदय कठोर ही है!

नखज्योतिर्व्याजाच्छलयसि निजान्धं ह्यनुचरं
तटे श्रीखण्डार्थी त्वमसि तुलसीबालकितवः।
मुखं द्रष्टुं याताः परमयतयोऽपि क्षयमहो
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥९

हे कृष्ण, आप अपने पद-नखों की ज्योति के व्याज से अपने नेत्र-हीन अनुचर को छलते हैं। तट पर श्रीखण्ड माँगने वाले आप ही तुलसी के बाल-वञ्चक हैं। अहो, आपके मुख को देखने हेतु महान् यति-गण भी क्षय को प्राप्त हुए। तब कैसा आश्चर्य कि आपका हृदय कठोर ही है!

विलम्बे पाण्डित्यं तव विपदि भक्ते निपतिते
अनाकर्ण्याह्वानं चलसि न पदं त्रातुमबलम्।
समुद्धर्तुर् विश्वे तदपि न च ते सीदति यशः
किमाश्चर्यं तस्माद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥१०

हे कृष्ण, किसी भक्त के विपत्ति में पड़ जाने पर आपको विलम्ब करने में पाण्डित्य प्राप्त है। बिना आह्वान सुने आप तो उस निर्बल की रक्षा करने के लिए एक पग भी नहीं चलते। तथापि संसार में आपकी समुद्धारक के रूप में कीर्ति नहीं घटती। अतः क्या आश्चर्य कि आपका हृदय कठोर ही है!

कठोरे कंसारे तव मनसि का मेऽस्तु गणना
पदे स्थानाकाङ्क्षी सकलविफलाशो मुनिगणः।
प्रदद्या मे तस्माद् वसतिमनिशं त्वच्छ्रवणयोर्
गिरा व्याख्यायां यद्धृदयमपि ते कृष्ण कठिनम्॥११

हे कंस-निकन्दन, आपके कठोर मन में मेरी क्या गणना हो सकती है? और आपके चरणों में स्थान पाने के अभिलाषी तो सभी हताश मुनि-गण हैं। अतः आपको मुझे अपने कानों में नित्य वास देना चाहिए, जिससे मैं वाणी के द्वारा यह कहता रहूँ कि हे कृष्ण आपका हृदय तो कठोर है!

इदं वै कृष्णस्याभिनवमिह निन्दास्तुतिपरं
सतः स्तोत्रं भक्त्या पठत इव विद्रावयति हृत्।
न कश्चिच्छृण्वन् योऽनुभवति न नैजात्मनि मुदं
किमाश्चर्यं विष्णोर् दृढहृदपि निःस्पन्दयति चेत्॥१२

यह श्रीकृष्ण का अभिनव निन्दा-स्तुति परक स्तोत्र भक्ति-पूर्वक पढ़ने वाले सज्जन के हृदय को मानों पिघला देता है। ऐसा कोई नहीं है जो इसे सुनकर अपनी आत्मा में सुख का अनुभव नहीं करता। क्या आश्चर्य यदि यह स्तोत्र भगवान् विष्णु के कठोर हृदय में भी स्पन्दन पैदा करता हो!

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