Prabho dehi śaktim



The following 14 verses form the concluding portion of my नैष्काम्यशतकम्, which is a collection of 100 verses on detachment:

प्रभो देहि शक्तिम्!

महामोहसन्देहसन्दोहमध्ये
महाज्ञानघोरान्धकारे रजन्याम्।
समुद्धर्तुमात्मानमेवात्मना मे
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥1

हे प्रभो, हे विभो, रात्रि के समय महान मोह और सन्देह के समूह के मध्य और महान अज्ञान के घोर अन्धकार में अपने द्वारा ही अपना उद्धार करने की शक्ति दीजिए।

न मे सम्बलं किञ्चिदद्यास्ति बाह्यं
करे साधनं विद्यते मे हितस्य।
त्वमेवासि यन्ता शरण्यो हृदिस्थः
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥2 

हे प्रभो, हे विभो, मेरा कोई भी बाह्य सम्बल नहीं है। मेरे हित का साधन मेरे ही हाथ में है। तुम ही ह्रदय में स्थित मेरे नियन्ता और शरण हो। मुझे शक्ति दीजिए।

सदा धावनेन व्यथां जानुनोर्मे
सदा चिन्तया चैव मस्तिष्ककष्टम्।
जगत्तर्जनाघातशल्यं प्रसोढुं
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥3

हे प्रभो, हे विभो, सदा दौड़ने से मेरे घुटनों की व्यथा, सदा चिन्ता से उत्पन्न मस्तिष्क के कष्ट, और संसार के आघात के शल्य को सहने की शक्ति दीजिए।

कुरङ्गीकृतोऽहं भवारण्यमध्ये
मनोजातकस्तूरिकागन्धमुग्धः।
पटुव्याधबाणात् स्वरक्षार्थमद्य
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥4 

मैं संसार-रूपी वन में हिरन बनाया गया हूँ जो अपने ही मन से उत्पन्न कस्तूरिका के गन्ध से मुग्ध हो गया है। हे प्रभो, हे विभो, चतुर व्याध के बाण से अपनी रक्षा करने के लिए मुझे शक्ति दीजिए।

गतो मे वसन्तो निदाघो व्यतीतः
पयोदागमाकाङ्क्षिणो जीवनस्य।
अपर्णे विपर्णे स्वहेमन्तकाले
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥5 

हे प्रभो, हे विभो, मेरा वसन्त चला गया और मेघों के आने की आकांक्षा करने वाले जीवन का ग्रीष्म भी बीत गया। अब इस पत्तों से विहीन अपने हेमन्त काल में मुझे शक्ति दीजिए।  

कवेर् ज्ञातुमेवाभिधामुद्यतोऽहं
ततो लक्षणां व्यञ्जनां चैव यत्नात्।
मनो मेऽधुना वीक्ष्य वक्रोक्तिविद्धं
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥6 

मैं कवि की अभिधा को समझने को उद्यत हूँ – तत्पश्चात् लक्षणा और व्यञ्जना को भी समझने का प्रयत्न करूँगा।किन्तु वक्रोक्ति से आहत मेरे मन को देखकर, हे प्रभो, हे विभो, मुझे शक्ति दीजिए।

मुदा कामकल्लोलिनीस्नातुकामान्
कथं बोधयेयं तटान्ते प्रयातान्।
समक्षं समीक्ष्योरगग्राहचक्रं
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥7 

तृष्णा की नदी में स्नान करने को जो लोग सहर्ष घाट के अन्त तक चले गए हैं, मैं उन्हें कैसे सचेत करूँ? सामने सर्प और मकर के समूह को देखकर हे प्रभो! मुझे यह कार्य करने की शक्ति दीजिए।

यदा क्रेतुमेतं सुखस्यापि लेशं
जना उत्सुका द्रव्यवन्तो महान्त:।
अमूल्यस्य मूल्यं तदाख्यातुमत्र
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥8

जब सुख के लेश मात्र का क्रय करने के लिए यहाँ महान् धन सम्पन्न लोग उत्सुक हो रहे हों, तब हे प्रभो! मुझे अमूल्य के मूल्य की सम्यक् व्याख्या करने की शक्ति प्रदान करें।

स्वयं कर्मभिर् बन्धने बध्यमानान्
स्वयं बन्धनोच्छेदने सिद्धहस्तान्।
सुकाव्येन तान् प्रेरितुं मार्गबन्धो
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥9

हे मार्गबन्धो प्रभो, जो लोग स्वयं अपने कर्मों से बन्धनों में बँधते जा रहे हैं तथा स्वयं अपने बन्धनों को काटने में दक्ष हैं, उन को काव्य के द्वारा प्रेरित करने की शक्ति दीजिए।

अनेयं नये दुर्नयान्नेतुमस्मिन्
क्षमो नैव नेता नयज्ञोऽपि कश्चित्।
स्वयं भ्रान्तपान्थं समध्वे प्रणेतुं
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥10

हे प्रभो, जब किसी अनेय को दुर्नय से नय पर ले जाने में एक भी नयज्ञ नेता समर्थ न हो, तब मुझे स्वयं उस भ्रमित यात्री को सत्पथ पर ले जाने की शक्ति दीजिए।

अहेर्लालनाद् दुग्धदानेन वीक्ष्य
भुजङ्गप्रयातं नृणां मस्तकेषु।
तदा गारुडं मन्त्रमुद्घोषितुं मे
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥11

हे प्रभो, दूध पिलाने के कारण मानवों के सिरों पर सर्प को मँडराता देख मुझे गारुड मन्त्र के उद्घोष की शक्ति दीजिए।

प्रमोदे प्रमादे प्रयाणे प्रवासे
विनोदे विवादे विलासे विषादे।
वपुश्चन्दने कामसर्पप्रयाते
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥12

प्रमोद, प्रमाद, प्रयाण, प्रवास, विनोद, विवाद, विलास, और विषाद में देह-रूपी चन्दन पर काम-रूपी सर्प के मँडराने के समय, हे प्रभो! मुझे शक्ति दीजिए।

धनस्वामिनां वा जनस्वामिनां या
महीस्वामिनां स्वत्वमाक्रम्य तिष्ठेत्।
मन:स्वामिनीं वोढुमेतां स्वतृष्णां
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥13

हे प्रभो, जो धन, जन व भूमि-पतियों के प्रभुत्व को भी जीत कर बैठती है, उस अपने मन की स्वामिनी तृष्णा को वहन करने की शक्ति दीजिए।

पदत्राणमप्यस्तु पादद्वये नो
शिरस्त्राणमेवातपत्रं न वेति।
तथाप्यन्तरे स्वात्मसन्तोषजां मे
प्रभो देहि शक्तिं विभो देहि शक्तिम्॥14

हे प्रभो, चाहे पैरों में जूते हों वा न हों, सिर पर पाग और छत्र हो वा न हो, आप मुझे अन्तर्मन में आत्म-सन्तोष से उत्पन्न शक्ति प्रदान कीजिए।

1 thought on “Prabho dehi śaktim”

  1. कुशाग्रं यथा पादलग्नं विधत्ते
    तथायं कवीन्द्रः पदान्यत्र धत्ते।
    कुचाग्रं न केषां हरत्येव चेतः
    तथैवास्ति धीमान् कुशाग्रो$निकेतः।

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