सेतुबन्धन
यदा यदा हि काव्येषु विरतिर्जायते मयि।
तदा राम तवाख्यानं स्मरन् स्वस्थो भवाम्यहम्॥
महासागर के तट के निकट खड़ी है वानर सेना वीर,
सभी इस जटिल प्रश्न में निरत, तरें कैसे जलधि गम्भीर।
स्वर्णमय रावण की लंका दिखाई देती है उस पार,
परन्तु पन्थ रोक कर खड़ा सलिल का यह दुस्तर विस्तार।
अधिक अब दूर नहीं वह काल, दशानन का होगा संहार,
धर्म मर्यादा रक्षण हेतु राम जब करें धनुष्टंकार।
समय की व्यथा बड़ी दुर्वह, तेज बल पौरुष भी असहाय,
लक्ष्य प्रत्यक्ष, शौर्य प्रस्तुत, नहीं पर साधन हुआ सहाय।
शिला पर खड़े मौन सुग्रीव, विभीषण, अंगद, नल, हनुमान,
तीन दिवसों से सागर तीर तपस्या में तपते भगवान।
देख लक्ष्मण हो उठे निराश, कहा यह होगा विफल प्रयास,
सभी भुजबल के सम्मुख नत, धर्म का शक्ति में है वास।
नीति भीति की परिचारिका, किन्तु रघुनन्दन अनुनयशील
करें जो कोप, फटे अम्बर, एक शर जाये उदधि लील।
बीतते हर एक क्षण के साथ बीतता जाता मानो वर्ष,
उधर वैदेही का संताप, इधर पुरुषोत्तम का आदर्श।
द्विधा का एक सबल अङ्कुश, बाँधता नरवीरों की चाल
शैल-खण्डों से हो अवरुद्ध, यथा निर्झर का वेग विशाल।
विनय न जड़ की है भाषा, समझ कर कुपित हुए श्रीराम,
मँगाकर अपने अग्निज बाण, अर्चना को दे दिया विराम।
पुनः सारंग धनुष ले हाथ चलाया शोषक बाण कराल,
चला नीरधि का अन्तर चीर, शरज भीषण तप्ताकुल ज्वाल।
प्रचंड ज्योति भीति से प्रकम्पिता धरा घनी,
अजेय तेज से चली शराग्र कालिका अनी।
अनंतरश्मि यम स्वसा नयन किशोर भानु से,
ललाट रक्त का तिलक वसन स्वयं कृशानु से।
लिए कृपाण, पाश, परशु, शूल, दण्ड हाथ में,
सहस्र लोकपाल, शक्र, विष्णु, रूद्र साथ में।
जले भुजंग-दिग्गजों की चीत्कार को सुनो,
जले समुद्र के वितप्त धार धार को सुनो।
मकर व्याकुल, कच्छप मूर्छित, मत्स्य गण त्रस्त, सहित सब व्याल,
विजित जलनिधि भय से कम्पित, देख आता समीप ज्यों काल।
सभय नीरधि विनीत, मदहीन प्रभु के चरणों पर रख शीश,
कहा करबद्ध, दया का दान करें जड़ जंगम को जगदीश।
प्रभु की इच्छा के विपरीत नहीं होता है कोई कार्य,
किन्तु जड़ को भी चेतन प्राण दिए हैं आज आपने आर्य।
प्रकृति आज समझ पाई पुरुष के पौरुष का परिचय,
फूँक सकता नर जड़ में प्राण, नहीं मुझको इसपर संशय।
हे गुणातीत नरश्रेष्ठ! सूर्यकुल के प्रताप के केतु।
तैरते जाएँगे पाषाण, बाँधिए भव सागर पर सेतु॥