कालिकाताण्डवस्तोत्रम्
(पञ्चचामरवृत्ते)
कपर्दजालमध्यबद्धभोगिलोकसञ्चयं
प्रदीप्तभाललोललोचनानले महाहवे।
जगत्क्षयक्षणे महामृदङ्गतालनर्तकी
जुहाव कालिका तनोतु सा विरागसम्पदम्॥
संसार के विनाश के समय महायज्ञ में जिन्होंने अपनी जटाओं के जाल के मध्य बँधे भोगियों के लोकों के सञ्चय को अपने ललाट के उद्दीप्त तथा चञ्चल नेत्रों की अग्नि में होम किया था, वे महान् मृदङ्ग के ताल पर नृत्य करने वाली कालिका देवी वैराग्य-रूपी सम्पदा का विस्तार करें।
जटालबालबन्धनात् तदान्तकं भयङ्करं
सकामलोकवैरिणं करालदण्डधारिणम्।
विमुच्य चावशिष्टवासनात्ययं विधाय या
ननर्त कालिका तनोतु सा विरागसम्पदम्॥
उसी समय अपनी जटाओं के बन्धन से भयङ्कर, सभी सकाम प्राणियों के शत्रु,और विकराल दण्ड धारण करने वाले मृत्यु देव को विमुक्त कर जिन्होंने संसार में अवशिष्ट वासना का अन्त करने का निश्चय कर नृत्य किया था, वे कालिका देवी वैराग्य-रूपी सम्पदा का विस्तार करें।
प्रबुद्धबुद्धयोगिनी तपोभिपूतखड्गिनी
मनोविकारशत्रुभि: सहात्मयुद्धसङ्गिनी।
विशुद्धयोगपावके विरुद्धकामवाहिनीं
ददाह कालिका तनोतु सा विरागवैभवम्॥
जिन प्रबुद्ध और जागृत योगिनी, तपःपूत खड्ग धारण करने वाली, तथा मनोविकारों के साथ आत्मा के युद्ध में संगिनी ने विशुद्ध योग की अग्नि में अपने विरुद्ध खड़ी काम की सेना को भस्म किया था, वे कालिका देवी वैराग्य-रूपी वैभव का विस्तार करें।
अशेषकामपातकं वहन्ति ये शिर:स्थले
जना: सुखानुगामिनो निजेन्द्रियाभिवञ्चिता:।
विलोक्य तान् नताननान् स्वकर्मपाशयन्त्रितान्
जहास कालिका तनोतु सा विरागवैभवम्॥
जो सुख के अनुगामी और अपनी ही इन्द्रियों से ठगे गए लोग, समस्त काम-रूपी पातकों को अपने सिर पर ढोते हैं, उन झुके मस्तकों वाले और अपने कर्म के पाश से सञ्चालित होने वाले लोगों को देखकर जिन्होंने अट्टहास किया, वे कालिका देवी वैराग्य-रूपी वैभव का विस्तार करें।
नवीनकल्पसम्भवे जपाक्षमाल्यधारिणी
परात्मतत्त्वसारचिन्तनप्रभाप्रसारिणी।
यशस्विनी तपस्विनी हिमाद्रिराजनन्दिनी
बभूव कालिकाऽस्तु सा सदा विरागभूतये॥
नयी सृष्टि के उद्गम के समय जो हाथों में जप की अक्ष-माला को धारण करने वाली, परमात्म-तत्त्व के ज्ञान की आभा का प्रसार करने वाली, यशस्विनी, तपस्विनी, हिमालय-राज की कन्या के रूप में प्रकट हुईं, वे कालिका देवी सदा वैराग्य-रूपी विभूति प्रदान करें।
पुन: समुद्रमन्थने सुरासुधांशुसोदरा
करे निधाय हेमकुम्भमीप्सितार्थदं रमा।
गता मुरारिवाममेव देवदानवोत्तमान्
तिरश्चकार कालिकाऽस्तु सा विरागवृद्धये॥
पुनः नवीन सृष्टि में समुद्र-मन्थन के समय जिन्होंने सुरा तथा सुधांशु (चन्द्रमा) की भगिनी लक्ष्मी का रूप धारण कर, हाथों में इच्छाओं की पूर्ति करने वाला स्वर्ण-कुम्भ लेकर समस्त देवों तथा दानवों के नायकों का तिरस्कार कर मुरारि भगवान् विष्णु के वाम-भाग में स्थान प्राप्त किया, वे कालिका देवी वैराग्य की वृद्धि करें।
पतन्तु तारका ग्रहा: सवासवामरावती
दिवि क्षरन्तु मण्डलानि कल्पभङ्गलीलया।
न मे भवेत्पराभव: कदाप्यकामवर्त्मनि
प्रयाचते कविस्तथा कृपां करोतु कालिका॥
कवि यह याचना करता है कि चाहे प्रलय काल की लीला के कारण आकाश से तारे, ग्रह, इन्द्र-सहित अमरावती, तथा सभी लोक भी गिर जाएँ तो भी निष्काम-मार्ग पर चलते हुए कभी मेरा पराभव नहीं हो। कालिका देवी कृपा करें।
साधु वत्स 👌 साधुवादाश्च