Vāṇīprasādaḥ



The following verses form the introductory portion of my शिवकुटुम्बशतकम्, a collection of 100 verses on Bhagavan Shiva and his divine family:

वाणीप्रसादः

मिथ्याप्रलापकलुषेण मुखे कवीनां
वस्त्रं सरस्वति सितं मलिनायते ते।
वासांसि मार्जयितुमद्य तवेन्दुवक्त्रे
त्वां नीलकण्ठचरणे विनियोजयामि॥1

हे सरस्वती! कवियों के मुख में मिथ्यावाद से आपका श्वेत वस्त्र मलिन होता है। हे शारदे, उस वस्त्र के परिमार्जन के लिए मैं आपको प्रभु नीलकण्ठ के चरणों में लगाता हूँ।

कश्चिद् युनक्ति नयनप्रतिभाप्रकोषं
कान्ताननोपमपदार्थगवेषणायाम्।
तन्निग्रहात् तव सरस्वति कण्ठहारं
त्रातुं स्मरारिशतकं रचयामि चेदम्॥2

हे सरस्वती! कोई अपने नयनों की प्रतिभा का सारा कोष कान्ता के मुख से तुलनीय पदार्थों के अन्वेषण में लगा देता है। उनकी पकड़ से आपके कण्ठ हार को छुड़ाने के लिए, मैं यह स्मरारि भगवान् शिव का शतक लिख रहा हूँ।

मातर्दयामयि कुरुष्व गृहं कवीनां
वक्त्रेषु शुभ्रवसने न कदापि तेषाम्।
आदौ समर्च्य मधुरैर्वचनैः सदा ये
त्वां योजयन्त्यशिवकीर्तिनिरूपणाय॥3

हे श्वेत वस्त्रों वाली दयामयी माता सरस्वती! आप ऐसे कवियों के मुख में निवास न करें, जो आपको पहले मधुर वचनों से पूजकर, फिर शिव से इतर लोगों के यशोगान में लगा देते है।

रूपं निगूहसि निजं हि पुनर्द्वितीया-
शीतांशुना च सदृशं प्रकटीकरोषि।
आस्थाय मेऽद्य रसनां नटसि प्रभुत्वं
वाणि स्थिरैधि शितिकण्ठसमर्चनाय॥4

हे वाणी! आप अपने रूप को छिपाती हैं और पुनः दूज के चाँद के समान प्रकट कर देती हैं। मेरी जिह्वा का आश्रय लेकर प्रभुता का अभिनय करती हैं। अब आप भगवान् शितिकण्ठ की अर्चना के लिए स्थिर हो जाएँ।

बालाः क्वचित् प्रविलपन्ति हसन्ति रामा
उच्चैर् नदन्ति विविधानि च वाहनानि।
शान्तिं न यान्ति मुनयोऽपि कुतो जगत्या-
माराधनं यतिपते: करवाणि वाणि॥5

कहीं बच्चे रोते हैं तो कहीं युवतियाँ हँसती हैं। कहीं विविध वाहन उच्च स्वर में ध्वनि करते हैं। जब मुनिगण भी संसार में शान्ति नहीं पाते तो हे वाणी, मैं यतियों के स्वामी की आराधना कैसे करूँ?

मूर्तिर्न यस्य भुवने प्रतिमूर्तिरेव
कस्माद् भवेन्मनसि मे कलिता त्रिमूर्तेः।
वाणि स्थिरा तदपि मे भव दुर्नयस्य
श्रीचन्द्रचूड-डमरुस्वरनिःसृते त्वम्॥6

जिन त्रिमूर्ति-स्वरूप शिव की संसार में कोई मूर्ति नहीं है, उनकी प्रतिमूर्ति मेरे मन में कैसे बन सकती है? तथापि मुझ दुस्साहसी की वाणी, आप जो भगवान् चन्द्रचूड के डमरु के स्वरों से उत्पन्न हुई हैं, स्थिर हो जाएँ।

सद्यो गतं क्व कवितापदकौशलं मे
केनारिणा च मुषिता मम वाक्यशक्ति:।
नष्टां कलां मृगयितुं जननि प्रसादं
याचे त्वदीयममरेशपदाब्जभृङ्गि॥7

अकस्मात् ही मेरा काव्य पद कौशल कहाँ चला गया? किस शत्रु के द्वारा मेरी वाक्य-शक्ति चुरा ली गई है? हे महादेव के चरणों की भृङ्गी वाणी, मैं मेरी लुप्त हुई कला को खोजने के लिए आपके प्रसाद की याचना करता हूँ।

पूर्वार्जितं किमपि पुण्यबलं गिरीशि
त्वत्पूजने मम रतिं व्यतनोद्धि बाल्यात्।
दित्सा भवेत्तव सुताय तदा सपर्या
सिद्धास्तु मे कुमुदबान्धवशेखरस्य॥8

हे वाणी की देवी सरस्वती! मेरे पूर्व काल में अर्जित पुण्य-बल ने ही आपके पूजन में मेरी रति का विस्तार किया है। यदि आपको अपने पुत्र को कुछ देने की इच्छा हो, तो कुमुद-बन्धु चन्द्रमा को धारण करने वाले भगवान् शिव की मेरी सेवा सिद्ध हो जाए।

लब्धं महेशकृपया मम यत्कवित्वं
तद्वर्धनाय गिरिजाशरणं प्रपद्ये।
तद्विघ्नशान्तिनिरतो गणयूथनाथस्
तद्रक्षणाय दनुजाच्छिखिवाहनोऽस्तु॥9

जो मेरा कवित्व महादेव की कृपा से प्राप्त हुआ है, उसके संवर्धन के लिए मैं गिरिजा की शरण लेता हूँ। उस कवित्व के सभी विघ्नों को शान्त करने में गणेश और दानवों से उसकी रक्षा के लिए मयूर-वाहन कार्तिकेय तत्पर हों।

द्राक्षापयोमधुघृतेक्षुजशर्कराद्यैस्
तृप्ते रसज्ञरसने स्तवनानभिज्ञे।
त्वं सावधानममृतांशुधरेश्वरस्य
स्तोत्राय वाचमचलां वह मूर्ध्नि गुर्वीम्॥10

हे द्राक्षा, दूध, मधु, घृत, गुड़, और शर्करा से तृप्त होने वाली रसज्ञ रसने, तुम स्तुति करने से अनभिज्ञ हो। अतः सावधान होकर अमृतांशु-शेखर भगवान् शिव के स्तोत्र के लिए इस अचल और भारी वाणी का सिर पर वहन करो।

चारित्र्यचन्दनविलेपितदेहशाली
स्वाध्यायचिन्तनविशुद्धविवेकशाली।
अर्धेन्दुमौलिचरणाम्बुजभक्तिशाली
यस्य त्रिपुण्ड्रतिलकोऽस्ति स भाग्यशाली॥11

जो मनुष्य शरीर पर चरित्र-रूपी चन्दन का लेप धारण करते हैं, जो स्वाध्याय और चिंतन से विशुद्ध विवेक के धनी हैं, जो भगवान् चन्द्रमौलि के चरण कमलों में भक्ति भाव रखते हैं, और जो जिसके त्रिपुण्ड्र का तिलक है, वे भाग्यशाली है।

आरोढुमुद्यता भीता वाण्येका मे नवोदिता।
कैलासवासिनस्तुङ्गां भक्तिसोपानमालिकाम्॥12

मेरी नवोदित और भयभीत वाणी अकेली ही कैलास-निवासी भगवान् शिव की उत्तुंग भक्ति-रूपी सीढ़ियों की माला का आरोहण करने के लिए उत्सुक है।

2 thought on “Vāṇīprasādaḥ”

  1. यह तो कर्णामृत है, भाई। हिन्दी अनुवाद फिर सोने पर सुहागा हुआ । वेङ्कटेशसुप्रभातम् जो हमारे घरों में पढा जाता है वह भी वसन्ततिलका वृत्त में बद्ध है सो वही आनन्द आया कुशाग्रवर्यविरचित वाणीप्रसाद के पारायण से ।

    1. श्रीनिवास महोदय, आपकी रसज्ञता-पूर्ण प्रशंसा के लिए धन्यवाद। आप इसी वेबसाइट पर मेरे सूर्य-सुप्रभातम् के कुछ अंश पढ़ सकते हैं। यह काव्य भी वसन्ततिलका वृत्त में है और शनैः शनैः एक शतक का रूप ले रहा है।

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